योग को जीवन पद्धति के रूप में अपना लेने से बहुत सी समस्याओं का समाधान स्वतः हो जाता है। जो योगाभ्यास करता है उसका मन तथा शरीर स्वस्थ हो जाता है। एक समझदारी आती है कि – यह कारण है, यह परिणाम है और यह उपचार की व्यवस्था है। जब इन तीनों का ज्ञान एक साथ होता है, तब व्यक्ति स्वस्थ रहता है। यही योग का पहला प्रयास है। उपचार के लिए कठिन प्रक्रिया से गुजरना आवश्यक नहीं है, बल्कि योगाभ्यास द्वारा बहुत सरल तरीके से अपने व्यक्तित्व और मन को संवारते हुए हम स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इसमें केवल आसन नहीं, बल्कि ध्यान की पद्धतियाँ भी सहायक होती हैं। रोग के रहते हुए भी हम अपने आपको विश्रान्त रख पायें तो उपचार की प्रक्रिया द्रुत हो जाती है।
योगासन का अर्थ
वैसे तो सम्पूर्ण योगशास्त्र ही शरीर, मन, प्राण और चेतना को विकसित करने के साधनों से परिपूर्ण है, परन्तु सरलतम एवं सहज रूप से हम जहाँ से शरीर, मन एवं भावनाओं को सही दिशा देने का प्रयास करते है, वह है- आसन। आसन का अर्थ है – शरीर की आरामपूर्वक स्थिति। इनका अभ्यास स्वस्थ, अस्वस्थ, युवा, वृद्ध, सभी कर सकते हैं।
आसन और शारीरिक व्यायाम
साधारणतः लोग आसन का अर्थ शारीरिक व्यायाम से लगाते हैं, लेकिन वास्तविक रूप से ये शारीरिक व्यायाम से थोड़ा अलग हैं। हठयोग के अनुसार आसन शरीर की एक विशेष स्थिति है, जिसमें प्राण ऊर्जा का निर्बाध प्रवाह होता है और चक्र जाग्रत होते हैं। यह सत्य है कि आसन का प्रभाव सारीर पर पड़ता है, परन्तु इसके साथ-साथ यह मुख्य रूप से शरीर, मन और चेतना, इन तीनों का विकास एक साथ करता है।
योगासन और सजगता
अगर आसन मात्र शारीरिक व्यायाम होते तो उसमें सजगता की उतनी नावश्यकता नहीं रहती। आसनों का अभ्यास करते समय सजगता को क्रिया साथ जोड़ने पर विशेष जोर दिया जाता है। शरीर में जो क्रिया हो रही है उसके तपूर्ण सजग बनने के लिए आँखों को बन्द रखना सहायक होता है। आसनों का अभ्यास यांत्रिक नहीं होना चाहिए, बल्कि अगर हाथ हिलता है तो उसके त सजग होना और अपने मन में भी उस क्रिया को सम्पादित होते हुए देखना है। इतना ही नहीं, अपनी श्वास को भी उस गति के साथ जोड़ना है। तभी आप इनके लाभों को आत्मसात् कर पायेंगे।
योगासन और श्वसन
आसन करते समय श्वास का एक सामान्य नियम है जब शरीर के किसी अंग का संकुचन होता है तब श्वास बाहर छोड़ी जाती है और जब किसी अंग का प्रसारण होता है, तब श्वास अन्दर ली जाती है। अतः आसन करते समय व्यक्ति को अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ सारे शरीर का सहयोग मिलना आवश्यक होता है।)
योगासन के फायदे
योगासन और प्राणो का प्रवाह
आसनों के अभ्यास से शरीर पर जो नियंत्रण प्राप्त होता है वह मन पर नियंत्रण स्थापित करने में भी सहायक होता है। आसनों से स्थिरता का विकास होता है, प्राण का निर्वाध प्रवाह होता है और रोग उत्पन्न होने की संभावना कम हो जाती है। जैसे रुके हुए जल में अनेक प्रकार के बैक्टीरिया जन्म लेने लगते हैं वैसे ही जब प्राण का प्रवाह शरीर में कहीं पर अवरुद्ध हो जाता है तो बैक्टीरिया के पैदा होने के लिए अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, प्राणों का प्रवाह सतत् प्रवाहित जल के समान होना चाहिए। शरीर में जो कड़ापन होता है वह प्राणों के अवरुद्ध होने और विषाक्त तत्त्वों के जमाव के कारण होता है। जब प्राणों का स्वतंत्र प्रवाह होने लगता है तो शरीर से विषाक्त पदार्थ निकल जाते हैं और तब आप आराम से आगे-पीछे झुक सकते हैं।
योगासन और शारीरिक स्वस्थ्य
आसन आज भी उतने ही उपयोगी हैं जितने हजारों वर्ष पूर्व थे। आज इसके प्रति जागृति आ रही है और योगासन को शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए उचित साधन माना जा रहा है। मांसपेशियों में साधारण खिंचाव, आंतरिक अंगों की मालिश एवं सम्पूर्ण स्नायुओं में सुव्यवस्था आने से अभ्यासी के स्वास्थ्य में अद्भुत सुधार होता है। असाध्य रोगों में लाभ एवं उनका पूर्णरूपेण निराकरण भी योगाभ्यासों द्वारा किया जा सकता है।
आसनों का मुख्य लक्ष्य हमें परम चेतना के मार्ग पर ले जाना है, जिससे हमें अपने अस्तित्व का ज्ञान हो जाए। यदि शरीर रोग ग्रस्त है तो हम परम चेतना की ओर जाने की कामना भी नहीं कर सकते, क्योंकि इसका असर मन पर पड़ता है। मन और शरीर एक-दूसरे से अलग नहीं, बल्कि दोनों शरीर रूपी यंत्र के दो भाग हैं। मन संचालक है और शरीर यंत्र इसलिए जैसे-जैसे शरीर सुधरता जाता है, वैसे-वैसे मन के स्वास्थ्य में उन्नति होती जाती है। आसनों के अभ्यास से शरीर रोग मुक्त हो जाता है। यह जोड़ों को लचीला बनाता, स्नायुओं का विस्तार करता एवं विषाक्त पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने में मदद करता है। आसन से शरीर के विभिन्न अंगों की मालिश होती है जिससे आन्तरिक अवयवों को शक्ति मिलती है; जैसे- हृदय, फेफड़े, आमाशय,रक्तवाहिनियाँ आदि। इन सबसे शरीर के अन्दर फूर्ति और प्रसन्नता बनी रहती है तथा थकान नहीं आती, जिसके फलस्वरूप सुन्दर स्वास्थ्य प्राप्त होता है। अतः सुदृढ़ विचारों वाले मन के लिए स्वस्थ शरीर आवश्यक है। प्राय: देखा जाता है कि मानसिक एवं शारीरिक तनाव तथा असन्तुलन कई बड़ी बीमारियों का कारण होता है। आसन व्यक्ति को मानसिक स्थिति बदलने में बहुत सहयोग देते हैं ।
योगासन और अंतःस्रावी ग्रंथि प्रणाली
सर्वप्रथम आसनों के अभ्यास का अन्तः स्त्रावी प्रणाली पर बहुत प्रभाव पड़ता है। यह प्रणाली हमारे जीवन को नियंत्रित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है और हमारे शरीर में अनगिनत आवश्यक कार्यों का संचालन करती है। यह हमारी शारीरिक बनावट, भावनात्मक अभिव्यक्ति एवं जीवन के प्रति दृष्टिकोण को प्रभावित करती है। जिस व्यक्ति की अन्तःस्रावी प्रणाली सबल होती है वह जीवन के प्रति आशावान होता है, उसके विचार स्पष्ट होते हैं। जिस व्यक्ति की यह प्रणाली निर्बल होती है वह अस्वस्थ, निराशावादी, विचित्र मन:स्थिति वाला एवं बहुत अधिक फुर्तिला या सुस्त होगा। इस प्रणाली के सहयोग से ही प्रजनन, पाचन, भावनात्मक प्रतिक्रियाएँ आदि जीवनोपयोगी कार्य होते हैं। अन्तःस्रावी प्रणाली शरीर में एक प्रकार का रस उत्पन्न करती है जो हॉरमोन के नाम से जाना जाता है। यह सुन्दर स्वास्थ्य के विकास एवं सम्पूर्ण ग्रंथि प्रणाली को सन्तुलित रखने के लिए अत्यन्त आवश्यक है।
अंतःस्रावी ग्रंथि प्रणाली में अनेक ग्रंथियाँ हैं, जो पूरे शरीर में फैली हुई हैं। प्रत्येक ग्रंथि से आवश्यक हॉरमोन उचित समय तथा उचित मात्रा में निःसृत होते हैं। जब अंतःस्रावी प्रणाली में कुछ दोष आ जाता है तो शरीर की क्रियाविधि गड़बड़ होने लगती है। विभिन्न ग्रन्थियाँ आपस में एक-दूसरे इस प्रकार सम्बद्ध हैं कि एक ग्रंथि में दोष आने से सारी प्रणाली में गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है। आसनों के अभ्यास द्वारा किसी भी ग्रंथि की क्रियाशीलता को मंद या तीव्र कर इस अव्यवस्था को दूर किया जा सकता है। साथ ही मस्तिष्क में इन ग्रंथियों का जो नियंत्रक केन्द्र होता है उसमें भी संतुलन लाया जा सकता है। इसी कारण कभी-कभी सरल योगासनों से भी आश्चर्यजनक शारीरिक लाभ प्राप्त होते हैं।
यह प्रणाली हमारी भावनात्मक क्रियाओं को बहुत अधिक प्रभावित करती है, जिनका हमारी मानसिक प्रक्रियाओं से गहरा सम्बन्ध रहता है। उदाहरण के तौर पर, आसनों के अभ्यास से यदि केवल इस प्रणाली में सुधार ले आया जाए तो जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण में बड़ा परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है। आसन मन को शक्तिशाली और संतुलित बनाते हैं। आसनों का अभ्यास आत्मविश्वास जगाता है।
आसनो के अभ्यास द्वारा प्राणशक्ति का निर्बाध प्रवाह
आसनों का शरीर पर सूक्ष्म प्रभाव भी पड़ता है। सम्पूर्ण शरीर के चारों ओर और उसके भीतर एक ऊर्जा क्षेत्र है जो इन्द्रिय अनुभव के परे है। योग में इसे प्राणमय कोष कहते हैं। विज्ञान में इसे बायोप्लाज्मा कहते हैं। यह ऊर्जा शरीर के भीतर और बाहर विशेष पथों में घूमती है जिन्हें योग की भाषा में नाड़ियाँ कहते हैं। ये नाड़ियाँ कभी-कभी अवरुद्ध हो जाती हैं और प्राणशक्ति उस जगह में रुक जाती है, जिससे कई शारीरिक और मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। आसनों के अभ्यास से नाड़ियों में प्राण का प्रवाह सुचारु रूप से होने लगता है और उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। इस प्राणमय कोष का मन से गहरा सम्बन्ध होता है। अतः आसनों के अभ्यास से जब प्राणों का प्रवाह निर्बाध हो जाता है, तब मानसिक सामंजस्य एवं शान्ति प्राप्त होती है।
योगासनों के अभ्यास के समय ध्यान देने योग्य बातें
आसनों का अभ्यास करने के लिए स्थान स्वच्छ, शान्त एवं हवादार होना चाहिए। वहाँ नमी एवं दुर्गन्ध आदि नहीं होना चाहिए एवं कमरा यथासंभव रिक्त होना चाहिए। नित्यकर्म से निवृत्त होने के बाद ही आसनों का अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास खाली पेट या भोजन के कम से कम 3 घण्टे के बाद ही करना चाहिए एवं अभ्यास के आधे घण्टे पश्चात् भोजन करना चाहिए। आसनों के अभ्यास के लिए प्रात: 4 बजे से 6 बजे तक का समय सर्वोत्तम है।
आसनों के अभ्यास के लिए नियमितता बहुत जरूरी है। प्रतिदिन 15 के मिनट का नियमित अभ्यास ही अधिक फायदेमंद हो सकता है। ऐसा नहीं कि कभी एक घण्टा कर लें और किसी दिन एकदम नहीं। ऐसे अभ्यास करने से शरीर पर कोई प्रभाव या फायदा नहीं पहुँचता।
आसन करने के लिए आयु एवं लिंग सम्बन्धी कोई बन्धन व सीमा नहीं है, किन्तु कुछ शारीरिक रोगों में कुछ विशेष आसनों की मनाही है। जैसे, उच्च रक्तचाप के रोगियों के लिए पीछे की ओर झुकने वाले आसन करना सख्त मना है, रीढ़ की हड्डी की शिकायत वाले या स्लिप डिस्क के रोगी को आगे झुकने वाले आसनों की मनाही है, इसी तरह और भी कई रोग हैं
जिनमें सभी आसन नहीं किये जा सकते। सदी बुखार के समय आसन करना चाहिए, क्योंकि ऐसे समय शरीर की शक्ति अन्दर के रोगाणुओं लड़ने में लगी रहती है।
आसनों के अभ्यास के बाद शरीर को विश्राम देना बहुत आवश्यक क्योंकि जब शरीर मुड़ता है तो वहाँ का रक्तप्रवाह रुक जाता है, पर विश्राम द्वारा रक्त संचालन पुनः शुरू हो जाता है। इस विश्राम की अवस् में श्वसन एवं रक्त शुद्धिकरण प्रणाली के सभी अंगों को पुनः अप साधारण स्थिति में आने का सुअवसर दिया जाता है। विश्राम के सम जितना हो सके शरीर को एकदम तनावरहित कर देना चाहिए, साथ ही श्वास का ध्यान रखना चाहिए।
आसनों को उनके अलग-अलग प्रभाव के कारण कई भागों में बांटा गया है। कई आसन होते हैं जो विशेष रूप से शरीर को ही प्रभावित क हैं, जबकि कई आसन शरीर की अपेक्षा मन पर अधिक कारगर सिद्ध होते हैं एवं चेतना के विकास में सहायक होते हैं। इसके अलावा कई आसन ऐसे भी हैं जिनका नियमित अभ्यास शरीर, मन एवं भावनाओं को प्रभावित करता है। पश्चिमोत्तानासन उन्हीं आसनों के अन्तर्गत आता है जो शारीरिक क्रिया के साथ-साथ चेतना के विकारों को दूर करता है। इस आसन को करने से सुषुम्ना नाड़ी का मूलाधार से सहस्रार तक जागरण होता है। इस नाड़ी के जागरण से चेतना का विकास होता है। यही इस आसन का प्रयोजन भी है एवं शास्त्रों में भी इस की आसन को चर्चा भी की गई है।