25 जून महज कैलेंडर में दर्ज एक तारीख़ नहीं है; यह उन लोगों के खून और स्याही से लिखी गई है जिन्होंने घुटने टेकने से इनकार कर दिया. 1975 में इस दिन आपातकाल की घोषणा की गई थी और इसके साथ ही हमारे गणतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय शुरू हुआ. हम, इंडियन एक्सप्रेस में, इसलिए विरोध नहीं कर रहे थे क्योंकि हम स्वभाव से बहादुर थे, बल्कि इसलिए क्योंकि इसके अलावा हमारे समक्ष कोई विकल्प नहीं था. आज, मैं अपनी याददाश्त से परे जाकर आपको इसलिए लिख रहा हूं, ताकि आपको एक बार फिर याद दिला सकूं कि इन दिनों की हवा में भी डर समाया हुआ है. आपके दरवाज़े सत्ता के हनक की दस्तक धीमी है, लेकिन सेंसरशिप ज़्यादा परिष्कृत है, धमकी ज़्यादा ‘क़ानूनी’ है.
मूल सिद्धांत वही है: असहमति को दबाना, सच्चाई को धुंधला करना, प्रेस/मीडिया को प्रचार के उपकरण के रूप में साधे रखना. पत्रकारों को जेल में डालने, छापे मारने और बदनाम करने के कई उदाहरण हैं, जो किसी संवैधानिक अनुच्छेद से नहीं बल्कि बड़ी सावधानी से किए जा रहे हैं. मीडिया, जो कभी गणतंत्र का एक स्तंभ था, अब अक्सर सत्ता के आगे झुक जाता है, सरकारी विज्ञापन खोने या दंडात्मक जांच का सामना करने से डरता है. क्या आप नहीं देखते कि कितनी आसानी से सच बोलना राजद्रोह बन गया है, कैसे लोकोन्मुख सवालों को ‘देश के खिलाफ’ साजिश करार दिया जाता है, कैसे पत्रकारों को एजेंसियों द्वारा सताया जाता है, कैसे विज्ञापनदाताओं को अवज्ञा को दंडित करने के लिए हथियार बनाया जाता है? 1975 में, हमारे पास सत्ता के अत्याचार का कारण स्पष्ट था. आज हम इस काले दौर को क्या नाम देंगे?
हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि एक प्रेस जो स्वतंत्र होने की अनुमति का इंतजार करती है, उसने अपनी मर्जी से आजीवन कैदी बनना चुना है. और वह संपादक जो सत्य से मुंह मोड़ता है, उसे उस कुर्सी पर बैठने का कोई अधिकार नहीं है. यह केवल एक सरकार या एक नेता के बारे में नहीं है. यह इस गणतंत्र की आत्मा के बारे में है और जो हमसे पूछता है कि क्या हम कुछ सरकारी विज्ञापनों के लिए अपनी अंतरात्मा को सौंप देंगे? संपादकीय स्वतंत्रता का व्यापार सत्ता तक पहुंच के लिए किया जाना चाहिए क्या?
मैं आपसे पूछता हूं और इसे आपको खुद से भी बार-बार पूछना चाहिए: क्या हम राज्य के आशुलिपिक या टंकक हैं या फिर लोकतंत्र के सतत प्रहरी? क्या आपकी विरासत साहस की होगी या मिलीभगत की?
आज हम सत्ता की प्रशंसा में जो स्याही बर्बाद करते हैं, वह एक दिन ऐसा दागदार रंग बन जाएगी जिसे हम कतई और कभी भी दूर नहीं कर सकते. हमारे संपादकों की मौजूदा पीढ़ी के बारे में कोई यह न कहे कि जब लोकतंत्र पर हमला हुआ, तो उन्होंने आंखें मूंद लीं. और इसलिए हमारे पास सच बताने और उसे दिखाने और छापने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. अतः मेरा आपसे आग्रह होगा कि सच के साथ खड़े रहिये चाहे इसके लिए कोई भी जोखिम क्यों न उठाना पड़े.
आइए हम अपने न्यूज़रूम में एक बड़ी तख्ती पर लिख दें कि अगर आज के दौर में लोकतंत्र अंधेरे में कराह कर मर जाता है, तो मीडिया को उसकी कब्र खोदने वाले के रूप में याद किया जाएगा. हम सभी को इस बात की चिंता होनी चाहिए कि संसद जैसी महान संस्था को दरकिनार कर दिया जाता है और उसमें होने वाली बहस का उपहास किया जाता है. विपक्ष को न केवल राजनीतिक रूप से बल्कि नैतिक रूप से भी शैतानी-स्वरुप रूप में पेश किया जाता है. एक बार कानून की रक्षा करने का काम करने वाली एजेंसियां राजनीतिक बदला लेने का साधन बन गई हैं.
यह सब 1975 की क्रूर ताकत से नहीं, बल्कि एक डरावनी मुस्कान के साथ होता है – वैधता में लिपटा हुआ, राष्ट्रवाद के नाम पर उचित ठहराया जाता है, स्थिरता के रूप में बेचा जाता है. सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि शासक सम्राटों की तरह व्यवहार करते हैं. सत्ता हमेशा लुभाती है.
त्रासदी यह है कि हम, लोग और प्रेस, यह भूल गए हैं कि विरोध करना हमारा कर्तव्य है. और इसलिए मैं चाहता हूं कि आप आपातकाल को शोक मनाने के लिए नहीं, बल्कि याद दिलाने के लिए याद करें. यह सिर्फ़ श्रीमती गांधी के बारे में नहीं है. यह हर उस दौर के बारे में है जहां सत्य को चुप करा दिया जाता है और भय को पुरस्कृत किया जाता है. आप सभी अपने दिल की गहराइयों में जानते हैं कि लोकतंत्र सिर्फ़ नियमित चुनावों से नहीं टिक सकता. यह साहस से टिकता है, ख़ास तौर पर तब बोलने का साहस जब चुप रहना सुरक्षित हो और पुरस्कार और सम्मान लाता हो.
अगर हम आपातकाल को चेतावनी के तौर पर याद नहीं करते हैं, तो हम इसे किसी दिन एक भविष्यवाणी के रूप में याद करेंगे जो पूरी हुई. हमारे सामने सवाल यह नहीं है कि हम आपातकाल में हैं या नहीं. सवाल यह है कि क्या हम इसे वह कहने का साहस खो चुके हैं जो यह है. आज के भारतीय प्रेस को देखकर मेरा दिल टूट गया है. हम विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2024 में 180 देशों में से 151वें स्थान पर आ गए हैं, एक शर्मनाक रैंकिंग जिसने हमारे स्वतंत्रता सेनानियों को रुला दिया होगा.
जिस पेशे को मैंने अपना जीवन समर्पित किया, वह उपहास का विषय बन गया है. मुझे उम्मीद है कि युवा तथ्य-जांचकर्ता, स्वतंत्र पत्रकार और यूट्यूबर्स वही कर रहे हैं जो हम कभी करते थे, सत्ता के सामने सच बोलना. वे मुख्यधारा के मीडिया को उसकी कायरता दिखाने वाला आईना बन गए हैं. जिस चौथे स्तंभ की रक्षा के लिए मैंने लड़ाई लड़ी थी, उसे अब खुद से ही बचाने की जरूरत है.